यादों की अलमारी
उन कपकापंती उंगलियों ने
जब पकड़ा यादों की डोर को
एक सांकल सी टूटी अनजाने में
बरसों से बन्द कमरे की
धूल भरी यादें आजाद हुईं
जब यादों की संदूक नीचे आ गिरी
कुछ ख़त बिखर पड़े इधर-उधर
एक खत हाथ आया
पढ़कर उसे उन अधरो पर
हल्की सी एक मुस्कान उभरी
आंखो के पोरों से लुढ़कता हुआ
एक आंसू बनकर बूंद टपक गया
फिर से पढ़े जाने की पहचान लिए
अपने उपर उन बूंदों को समेटे
वह खत रख दिया गया फिर से ।।
उसी यादों की संदूक में
आधी बची पड़ी ऊन का बंडल
लिपटा था जो सलाई में
उन ख्वाबों की तरह
जो आज भी अधूरे थे
लेकिन लिपटे पड़े थे
यादों की सलाई से
उन्हें भी कभी बुनना था इसी तरह
जैसे यह आधा बुना स्वेटर था ।।
उन कपकपांती उंगलियों ने
फिर से हाथ बढ़ाया था
बिखरा सामान समेटने को
हाथ उसके मिट्टी का वह
खिलौना आया था
जिसे पाने की लालसा में
जाने कितने पापड़ बेले थे
अनगिनत मिन्नतें थी जो
मां से की गई थी
पापा की बचत की कमाई थी
एक छोटे से खिलौने ने ही
ना जाने कितनी खुशियां दिलवाई थी ।।
जैसे-जैसे सामान सिमटता गया
यादों से भरा हर समान बाहर निकलता गया
स्याही का नीब वाला वो पेन
सफेद कमीज़ को नीला कर देता
कुछ इसी तरह हमारी शरारतों का पिटारा खोल देता ।।
कोने में लुढ़क गई वो गेंद
टपक-टपक करती
बैट के संग जा लगती
जाने कितने शीशों को तोड़ा करती थी
इन यादों में बसी फटकारों का एक अहम हिस्सा थी ।।
मिली एक छोटी सी गुड़िया
एक किचन सेट और डॉक्टर का सेट
कुछ झुनझुने और उनके साथ
पीं पीं करती वह छोटी गाड़ी
आज भी उस बूढ़े दिल को
फिर से बच्चा बन जाने के लिए कहने लगी
यादों की अलमारी से यादें भारी होकर
बाहर झलकने लगी
टूटी सी उसी संदूक में
फिर से वापस रखी जाने लगी ।।
खतों के हिस्सों में आया था
यह तो चित्रकारी का पन्ना था
पानी वाले रंगो से बना
जिन्हें इतनी मेहनत से पाया था
अब यह भी इन्हीं यादों का हिस्सा था ।।
शायद यह कोई तस्वीर थी
यादों का अक्श लिए
कागज पर उतरी थी
कितने सच्चे थे सब
उतनी ही सच्ची ये यादें हैं
जो अब सिमट चुकी थी
फिर से संभल चुकी थी
उसी अलमारी के उपर
संदूक में भरकर रखी जा चुकी थी ।।
आज फिर से उमड़ आई थी दिल में यादें
यादों के झरोखों से लिए
वही बचपन और जवानी के किस्से से
कुछ बचाकर रखी गई इन यादों के हिस्से से ।।
यादें कभी खत्म नही होती
यादें जिंदा रहती हैं
कभी सामान के साथ या
कभी उनमें बिताए इंसानों के साथ
यादें हमारे ही अंदर बसती हैं
हमारी ही तो कश्ती हैं
कभी संदूक में जा टिकती हैं
कभी बिखर कर हंस पड़ती हैं ।।
- कंचन सिंगला ©®
#लौटती यादें
#लेखनी प्रतियोगिता -07-Nov-2022
Gunjan Kamal
08-Nov-2022 11:59 AM
शानदार
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Suryansh
08-Nov-2022 10:25 AM
बहुत ही भावनात्मक अभिव्यक्ति,,,, बचपन याद आ गया
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Punam verma
08-Nov-2022 09:26 AM
Nice
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